Deep thinking
A friend of mine visited this blog recently and told me how he had no idea that I thought so deeply. He sounded really surprised. While I am always genuinely flattered when people acknowledge the fact that I think, I have an ambivalent take on their surprise at this discovery. Just yesterday, my brother asked me if I was so shallow that I would be happy in life if I had money. Now, if you knew my brother, you'd know that this was a trick question; one which has no correct answer. If you answer yes, you're condemned to shallowness anyway, but if you say no or any other such thing, you're just being defensive...but anyway, the point is, is money not important? i honestly believe that once the money part of your life is well taken care of, the other parts become easier to bear as well as sweeter.what's shallow about that? i think it's practical. but all this is beside the point. What I'm getting at is that it's people who are closest to you who sometimes know the least about you. I am sure if I were to make a list of all my characteristics, which I think are true to me, and put them up somewhere, my family would not recognize or even believe most of them. is this true for you too?
Labels: family
5 Comments:
sexy sharma!
i;m here to say congrats on your results! :D
also to say i wanted to call you and realised i have no rajasthan num of you! email it to me!
muwah.
m.
and here i thought that you liked my writing...:) thanks!! congs for your result too!!
Yes - until u take extra efforts to let em know who u really are. Like i had to, a few years back. And I insist we make ourselves clearer to our families (if we are to ourselves) cos life becomes easier that way. they stay outta ur way, you know. And abt money - I've started to believe this too - If the money is taken care of, you can think of doing other things which you wouldn't have time for otherwise, cos then life would mean a struggle to make ends meet.
of course money is important...atleast thats wat i tell myself ...the reason why im doin an mba??MONEY...journalism doesnt pay at all...mba howver pays and pays good..
u need to establish a certain security/stability in ure life and the "other parts" do become sweeter and easier then
जब से मनुष्य पैदा होता है, तब से मां-बाप उसे स्वस्थ और बुद्धिमान बनाने पर ही सारा तन, मन, धन लगाते हैं। विकसित देशों में तो केवल तन और घन ही रह गया है। दोनों ही जड़ हैं। चेतन की ओर किसी का घ्यान ही नहीं जाता। बाकी बातें तो जो घर में देखता-सुनता है, उसी से सीखता है। उनमें भी अघिकांश जाति-घर्म या लोक व्यवहार ही होता है। शरीर स्वस्थ हो और बुद्धि तेज हो, तब व्यक्ति मनमानी करने लगता है। संयुक्त परिवार विकसित देशों में तो होते ही नहीं। मां-बाप दोनों काम पर चले जाते हैं। संतान मनमानी करने के लिए पूर्ण स्वच्छन्द होती है।
इस स्वच्छन्दता को बड़ा होने पर नहीं रोका जा सकता। भले ही अलग होना पड़े। यही हो भी रहा है। बड़े बच्चे की जीवन के प्रति अवघारणाएं जब तय हो जाती हैं, तब बदलना आसान नहीं है। देर से शादी करने पर यही सबसे कठिन बात दिखाई देती है। समझौता करना दुष्कर लगता है। क्योंकि कोई भी अपने अहंकार को छोड़ना नहीं चाहेगा। दोनों की अपनी-अपनी प्रतिष्ठा दांव पर होती है। एक तो हो ही नहीं पाते।
अहंकार किसी को अपने से अघिक समझदार नहीं मानता। चाहे घन का हो, चाहे पद का, चाहे उम्र का। और भी अनेक रूप हो सकते हैं। ज्ञान का स्वयं का अहंकार भी बड़ा होता है। इसी अहंकार के कारण व्यक्ति दूसरों की प्रशंसा आसानी से नहीं करता। आलोचना तो जब कहो, कर देगा। दूसरे के कार्यो को छोटा आंकना या नकार देना आम बात है। स्वयं के कार्यो के लिए दूसरों को प्रभावित करने में लगा रहता है। यह एक पक्षीय दृष्टिकोण उसके जीवन का विषाक्त पक्ष बन जाता है। जीवन का सारा संतुलन तार-तार हो जाता है और उसे इसकी अनुभूति ही नहीं होती। क्योंकि वह तो स्वयं को ही कत्ताü मानकर जीता है। मां-बाप ने उसे पैदा करके कोई अहसान नहीं किया।उसके भाग्य में आना लिखा था, आ गया। क्या मां-बाप उसके आने को रोक सकते थे ईश्वर ने मुझे जानवर नहीं बनाया, आदमी बना दिया, तो अहसान किस बात का मेरे कर्म ऎसे ही थे। मां-बाप ने पाला-पोसा, नहीं करते। कोई और कर लेता। उम्र तो लिखा कर लाया ही था। मर तो सकता नहीं था। मुझे स्वतंत्र रूप से जीने से कौन रोक सकता है
तुम्हे टॉफी चçाहए हां। तो नमस्ते करो। पांव छुओ। ये लो अपनी टॉफी। थैंक्यू। यह नया रिवाज बन गया, कृतज्ञता ज्ञापित करने का। कुछ मिलेगा तो थैंक्यू। नहीं मिला तो कुछ नहीं। जीवन एक व्यापार होकर रह गया। यह थैंक्यू बुद्धि की उपज है। कृतज्ञता शरीर और बुद्धि दोनों का ही विषय नहीं है। यह तो भावना का पहलू है। मन की आर्द्रता है। बिना शब्दों के, भीगी पलकों से किसी का हो जाना है। समर्पण है। आत्मा ही तो बुद्धि और शरीर के माघ्यम से कृतज्ञता प्रकट करता है। उसी का विषय है। उसी की भाषा काम आती है।
कृतज्ञ शब्द को ही देख लें। इसमें शक्ति भी है, पूर्ण नियंत्रित गति भी है और भीतर से उठकर भीतर तक छूने वाली भी है। जब किसी का किया काम मेरे अन्तरतम को छू लेता है, मुझे द्रवित कर देता है, तब मेरे आत्मा का एक अंश निकलकर उसके आत्मा का अंग बन जाता है।
अब वह पराया नहीं लगता। हम भगवान से कष्ट दूर करने की प्रार्थना करते हैं। और कोई सहारा दिखाई नहीं देता। हमारी आंखें भीगी होती हैं। कष्ट दूर होने पर लौटकर वहीं आते हैं। उन्हीं भीगी पलकों से कृतज्ञता के भाव समर्पित करते हैं। स्वयं को भगवान का अंग मानकर बात करते हैं। शरीर का कोई भान नहीं रहता। होंठ खुलना ही नहीं चाहते। दोनों एकाकार हो जाते हैं। यही कृतज्ञता है। भाव है कृतज्ञता। शब्द नहीं है। उपहार नहीं है।
आईस्टीन के जीवन का एक उदाहरण पढ़ा था। एक मित्र उससे मिलने उसके घर आया। छत पर पूरे ब्रrााण्ड का चित्र बना हुआ था। "बहुत ही सुन्दर चित्र है। कलाकार के हाथ चूमने की इच्छा हो रही है।" आईस्टीन मुस्कुराया-"यह तो तुम्हारी बुद्धि कह रही है। जिसने सचमुच का ब्रrााण्ड बनाया, तुमको भी बनाया, उसका हाथ चूमने की भी कभी इच्छा हुई"
जहां बुद्धि का अहंकार है, वह कृतज्ञता नहीं होती। जीवन का यथार्थ नहीं होता। ज्ञान भी ऎसे व्यक्ति को प्रकाशित नहीं कर पाता। कृतज्ञता प्रकट करने की भी अपनी पात्रता होती है। इसकी पहली शर्त है संवेदनशीलता। दूसरे के मन को समझ सको, महसूस कर सको। उसे छू सको, प्रेम से तर कर सको। अहंकार तो स्वभाव से ही संवेदनहीन होता है। उसे अपनी स्वार्थपूर्ति के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। कृतज्ञता के लिए चाहिए उदारवादी मन। जिसे देकर प्रसन्नता होती है, लेकर नहीं। लेना संकुचन है, देना विस्तार है। जो स्वयं को दूसरों से छोटा मानकर जीता है, किसी के आगे झुकने में जिसे शर्म नहीं आती ; वही कृतज्ञता ज्ञापित कर सकता है। स्वयं पर जिसे आस्था है। आत्मविश्वास है। जहां न अपेक्षा होती है, न ही आसक्ति। जहां भीतर और बाहर एक है। एक-दूसरे के पूरक हैं, स्वघर्म की प्रतिष्ठा है।
कृतज्ञता का एक अर्थ है-मानव देह पाने की अनुभूति होना। ईश्वर अंश का भीतर आभास हो जाना। तभी मन निर्मल रहता है। चित्त निर्मल रहता है। तभी ज्ञान और कर्म की सीमा के बाहर जाकर व्यक्ति नतमस्तक हो सकता है। उसी के आगे, जो स्वयं के भीतर बैठा है। कृतज्ञता ज्ञापित करना जीवन का दिव्यतम पहलू है। जीवन का वर्तमान है और भविष्य का मोक्ष द्वार है। भविष्य के लक्ष्य पर दृष्टि नहीं है। वर्तमान के सदुपयोग पर दृष्टि है। कृतज्ञता को आत्मसात किया जाता है। आचरण का अंग बन जाती है। इसमें बन्घन भी नहीं है, क्योंकि इसके साथ किसी फल की कामना भी नहीं जुड़ी होती।
Post a Comment
<< Home